-ख्वाजा यूसुफ जमील-
कोरोना वायरस की गंभीरता से भारत भी अछूता नहीं है। देश में इससे संक्रमित होने वालों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है।सरकार और प्रशासन के सभी अपील के बावजूद लोग इसे गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण जागरूकता की कमी है और इस कमी के पीछे आम जनमानस का शिक्षित नहीं होना है। यह हमारे देश की विडंबना है कि आजादी के 70 साल बाद भी भारत में शिक्षा का स्तर संतोषजनक नहीं है। विशेषकर बालिका शिक्षा में यह कमी और भी अधिक उभर कर आती है।हालांकि केंद्र और राज्य सरकार के स्तर पर शिक्षा को बढ़ावा देने का हर संभव प्रयास किया जाता है। इस वर्ष के बजट में केंद्र सरकार की ओर से शिक्षा ढांचा को मजबूत बनाने के लिए 99,300 करोड़ रूपए आवंटित किये गए जबकि पिछले वर्ष के बजट में 94,800 करोड़ रूपए आवंटित किये गए थे। बढ़ी हुई राशि न केवल शिक्षा के प्रति सरकार के गंभीर प्रयासों को दर्शाता है बल्कि सभी के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षIके संवैधानिक जिम्मेदारियों को भी जाहिर करता है।
हालांकि सरकार की ओर से शिक्षा के प्रति किये जा रहे प्रयासों को मद्देनजर रखते हुए यदि जमीनी स्तर पर इसका जायजा लिया जाये तो बहुत बड़ी खाई नजर आती है। देश के ऐसे कई राज्य और जिला हैं जहां साक्षरता दर विशेषकर महिला साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। केवल जम्मू कश्मीर के सीमावर्ती जिला पुंछ के ही महिला और पुरुष साक्षरता दर की बात की जाये तो इसमें बड़ा अंतर साफ नजर आता है। 2011 की जनगणना के अनुसार इस जिला में साक्षरता दर 66.74 प्रतिशत है। जिसमें पुरुष साक्षरता दर 78.84 प्रतिशत और महिला साक्षरता दर महज 53.19प्रतिशत है। यह अंतर इस क्षेत्र में महिला शिक्षा के प्रति समाज के उदासीन रवैये को दिखाता है।
पुंछ जिला मुख्यालय से करीब 40 किमी दूर मंडी तहसील का बायला गांव भी शिक्षा के प्रति जागरूकता से अछूता नजर आता है। यहां ऐसे कई मुहल्ले हैं जहां इक्का दुक्का लड़कियों ने आठवीं से आगे की पढ़ाई पूरी की होगी।मुहल्ला श्गली शेखांश् के पूरे इतिहास में केवल नज़्मा नाम की एक लड़की है, जिसने दसवीं तक पढ़ाई पूरी की है। वह इस वक्त प्राइवेट से स्नातक की पढ़ाई पूरी कर रही है। इस एकमात्र सफल छात्रा ने अपनी कामयाबी के पीछे माँ का अथक प्रयास बताया। उसने बताया कि उसकी माँ एक आशा कार्यकर्ता है। हालांकि वह स्वयं नाममात्र की पढ़ाई की है, लेकिन फिल्ड में काम करने के दौरान उन्हें शिक्षा के महत्त्व का एहसास हुआ और उन्होंने मुझे शिक्षित करने का फैसला किया। हालांकि नाज्मा के साथ पढ़ने वाली मुहल्ले की बाकि सभी लड़कियों ने आठवीं के बाद ही पढ़ाई छोड़ दिया और घरेलू कामों में लग गईं। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह उन सभी लड़कियों के अभिभावकों का शिक्षा के महत्त्व से अनजान होना है। गरीबी के कारण भी कई अभिभावक आगे की पढ़ाई का खर्च उठाने में असमर्थ होते हैं। जिससे लड़कियां चाह कर भी अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख पाती हैं।
मुहल्ले के सरपंच गुलाम मुहम्मद बताते हैं कि पिछले वर्ष गांव की 20 से अधिक लड़कियो ने बीच में ही स्कूल छोड़ दिया और घर के कामों में लग गई हैं। इनमें से आधी लड़कियों की कम उम्र में शादी भी हो गई। लड़कियों की पढ़ाई छूटने के पीछे मुख्य कारण प्राथमिक शिक्षा का कमजोर होना है।उन्होंने बताया कि 11 साल पहले जब गाँव में प्राथमिंक विद्यालय की इस्थIपना हुई तो गांव वालों में उम्मीद की किरण जगी। उन्हें लगा कि शिक्षा के जिस लौ से वह दूर रहे, उनके बच्चों को इस कमी का सामना नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन ग्रामीणों का यह ख्वाब अधूरा ही रह गया। शिक्षा विभाग की लचर व्यवस्था और शिक्षको के उदासीन रवैये के कारण आज इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे अपना नाम तक नहीं लिख पाते हैं। उन्होंने बताया कि प्राथमिक स्तर पर कमजोर शिक्षा व्यवस्था के कारण स्वयं उनकी बेटी दसवीं पास नहीं कर सकी है। उन्होंने बताया कि गांव के प्राथमिक विद्यालय में नियुक्ति के बावजूद शिक्षक यदाकदा ही स्कूल आते हैं।हालांकि स्कूल में तैनात शिक्षिका का तर्क है कि स्कूल मुख्य सड़क से चार किमी दूर है, जिसे उसे पैदल ही तय करनी होती है। ऐसी परिस्थति में उसका रोजाना स्कूल आना मुमकिन नहीं है। वहीं शिक्षा विभाग की लापरवाही के कारण स्कूलो में उपलब्ध कराई जाने वाली पाठ्य पुस्तक और अन्य सामग्रियां भी समय पर नहीं दी जाती है।
गांव में माध्यमिक स्तर पर ही लड़कियों की पढ़ाई छूटने का एक और कारण उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का गांव से बहुत दूर होना भी है। भौगोलिक रूप से पूरी तरह पहाड़ी और दुर्गम क्षेत्र होने के कारण हाई स्कूल जाना कठिन होता है। ऐसे में मां बाप बेटियों को दूर भेजने से कहीं अधिक उनकी पढ़ाई छुड़वाना उचित समझते हैं। हालांकि ग्रामीणों का मानना है कि यदि गांव में ही हाई स्कूल खुल जाये तो ड्राप आउट की संख्या में काफी कमी आ जाएगी।
ऐसी ही स्थिति मंडी तहसील के अंतोंली करमारा और दूसरे अन्य गांवों की है। जहां प्राथमिक स्कूल में नाममात्र की शिक्षा प्रदान की जा रही है और यदि कोई होनहार छात्रा पढ़ना भी चाहती है तो हाई स्कूल गांव से इतनी दूर अवस्थित हैं कि अभिभावक उन्हें पढ़ने भेजने से कहीं अधिक घर बैठने को प्राथमिकता देते हैं। वहीं दूसरी ओर लड़कों के लिए दूरी कोई बाधा नहीं होती है। मां बाप उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए पुंछ जिला से लेकर जम्मू अथवा कश्मीर तक भेजते हैं। यही कारण है कि इन सीमावर्ती क्षेत्रों में लड़के और लड़कियों की शिक्षा के अनुपात में बड़ा अंतर देखने को मिल जाता है।
केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भले ही ढेरों योजनाएं चला रही हों, लेकिन जम्मू कश्मीर के इस सीमावर्ती क्षेत्रों में इसकी जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। यदि बालिका शिक्षा के प्रति ऐसे ही उदासीनता रही तो महिला और पुरुष साक्षरता में एक बड़े अंतर को कम करना मुश्किल हो जायेगा। यदि इस ओर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की सार्थकता बेमानी हो जाएगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षित बेटी से ही शिक्षित समाज का निर्माण संभव है।
(आलेख संजय घोष मीडिया अवार्ड 2019 के अंतर्गत लिखा गया है)